Monday, 22 August 2011

लोग मेरे गांव के

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के

कह रही है झोपड़ी और पूछते हैं खेत भी
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गांव के

बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता यहाँ ये जानकर
अब लड़ाई लड़ रहे है लोग मेरे गांव के

चीखती है हर रुकावट ठोकरों की मार से
बेड़िया खनका रहे हैं लोग मेरे गांव के

लाल सूरज अब उगेगा देश के हर गांव में
अब इकटठे हो रहे हैं लोग मेरे गांव के

कफ़न बाँधे हैं सिरों पर हाथ में तलवार है
ढूँढने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गांव के

दे रहे हैं देख लो अब वो सदा-ए-इंक़लाब
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गांव के

एकता से बल मिला है झोपडी की साँस को
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गांव के

देख ‘बल्ली’ जो सुबह फीकी दिखे है आजकल
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गांव के

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के

लो मशालों को जगा डाला किसी ने। आग बेवजह कभी घर से निकलती ही नहीं है। 
टोलियां जत्‍थे बना कर चीख यूं चलती नहीं है। रात को भी देखने दो आज तुम सूरज के जलवे। 
तब तपेगी ईंट तभी होश में आएंगे तलवे। तोड़ डाला मौन का ताला किसी ने। 
लो मशालों को जगा डाला किसी ने। भोले थे अब कर दिया भाला किसी ने। 

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