कौन कहता है कि आकाश में सूराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां जैसे आज चरितार्थ हो चली हैं
अभी हाल की ही बात है जबकि देश भ्रष्टाचार से लड़ते लड़ते निराश हो चुका था, लोग कहने लगे थे कि इस बीमारी का अब इलाज नहीं हो सकता, यहां तक कि लोग इसे स्वीकार करने की भी बात करने लगे थे लोगों का ये भी कहना था कि घूस को क्यों न सुविधा शुल्क का नाम दे दिया जाय, इतना ही समाज को अरबों के घोटालों पर अब अचंभा होना तक बंद हो गया था, तभी निराशा के इसी अंधेरे के बीच से फूटी आशा की एक किरण, फलक पर उभरा एक बुजुर्ग का चेहरा, समाधान और विश्वास की एक जीवंत प्रतिमा, और चल पड़ा कारवां उसकी एक आवाज पर हिल गई अड़ियल सत्ता और लोगों ने लगा दी जान की बाजी सवाल है कि आखिर इस बुजुर्ग की आवाज में ऐसा कौन सा जादू है कि सारा देश उसकी तरफ खिंचा चला आ रहा है, आखिर वो कौन सी ताकत है कि जिसके आगे सारी ताकतें नतमस्तक होने पर मजबूर हैं, वो ताकत है करनी कथनी के अभेद की, वो ताकत है सच्चाई की, वो ताकत है संवेदना की
अन्ना खुद कहते हैं कि एक दाने को तो त्याग करना ही पड़ता है तभी सैकड़ों दानों वाला भुट्टा पैदा होता है , हुआ भी यही, आशा की एक किरण उठी और देखते ही देखते बदल गई परिवर्तन के दमकते सूरज में, उठ खड़ा हुआ सारा देश
बह चली वो बयार वो आंधी जो जहां से गुजरी हजूम के हुजूम, काफिले के काफिले अपने साथ लेती चली गई
शायद इसी मिसाल के लिए मजरूह सुल्तानपुरी ने कभी लिखा था-
मैं अकेला ही चला था जानिब ए मंजिल मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया... ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
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